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भारत की जेलों में हर चार में से तीन कैदी विचाराधीन, इन आंकड़ों को देख समझिए कहां अटक रहा इंसाफ का पहिया

भारत की अदालतें लंबित मामलों के अत्यधिक बोझ का सामना कर रही हैं, जहां लाखों लोग वर्षों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, और अदालतों में न्यायाधीशों की कमी के कारण सुनवाई में विलंब हो रहा है।

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नई दिल्ली: यह कहा जाता है कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है। हालांकि, भारत की अदालतों में यह विलंब अब एक अनवरत समस्या बन चुकी है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक, लाखों मामले फाइलों में बंद हैं, मानो समय की धूल में दबे कोई पुरानी पुस्तक हों। कोई जेल की सलाखों के पीछे फैसले की प्रतीक्षा कर रहा है, तो कोई अदालत की तारीखों के चक्कर में जीवन बिता रहा है। आज हम इसी न्यायिक जटिलता पर चर्चा करेंगे, जहां न्याय की राह में आंकड़े, कहानियां और सुधार की उम्मीदें एक-दूसरे से टकराती हैं।


भारत की जेलों में विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या और न्यायिक प्रक्रिया की चुनौतियाँ

भारत की जेलों में हर चार कैदियों में से तीन विचाराधीन हैं, जिनका दोष अभी सिद्ध नहीं हुआ है। भारत न्याय रिपोर्ट 2025 के अनुसार, देश की जेलों में 76% कैदी विचाराधीन हैं, जबकि दिल्ली में यह आंकड़ा 90% तक पहुंच जाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, जेलों की क्षमता 131% से अधिक भरी हुई है, जिसमें 5.5 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी शामिल हैं। कई कैदी वर्षों से सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिससे उनका जीवन जेल की सलाखों के पीछे ठहर गया है। जस कॉर्पस लॉ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में यह बताया गया है कि विचाराधीन कैदियों की संख्या में वृद्धि का कारण अपर्याप्त कानूनी सहायता और धीमी सुनवाई प्रक्रिया है।


भारतीय सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और आवश्यक सुधार

सुप्रीम कोर्ट में 83,000 से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से कई व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक महत्व के हैं। इंडियन जर्नल ऑफ लॉ एंड जस्टिस के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में प्रति वर्ष केवल 193 कार्यदिवस होते हैं, जो इतने बड़े बैकलॉग को संभालने के लिए अपर्याप्त हैं। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने इलाहाबाद हाई कोर्ट को 27 बार सुनवाई टालने के लिए फटकार लगाई, यह कहते हुए कि 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में देरी मौलिक अधिकारों का हनन है।' इंटरनेशनल कमीशन ऑफ जुरिस्ट्स (ICJ) की 2025 की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाने और डिजिटल सुनवाई को बढ़ावा देने से कुछ राहत मिल सकती है।


उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और न्यायिक चुनौतियाँ

उच्च न्यायालयों में कुल 59.5 लाख मामले लंबित हैं, जिनमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय 11 लाख से अधिक मामलों के साथ शीर्ष पर है। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) के एक अध्ययन के अनुसार, इनमें से 3 लाख मामले 20 वर्षों से अधिक पुराने हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में फाइलों के प्रबंधन और सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया 'पूरी तरह से चरमरा गई है।' कर्नाटक न्यायिक अकादमी के एक अध्ययन में कहा गया है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी और बार-बार सुनवाई स्थगित करने की प्रथा इस समस्या को और गंभीर बनाती है।


निचली अदालतों में लंबित मामलों का संकट: जजों की कमी और पुरानी प्रक्रियाएं

देश भर की निचली अदालतों में 4.46 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इंडियाना इंटरनेशनल एंड कम्पैरेटिव लॉ रिव्यू के एक लेख में यह बताया गया है कि निचली अदालतों में जजों की कमी और पुरानी प्रक्रियाएं इस संकट के मुख्य कारण हैं। दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में 1972 का एक मामला और राजस्थान में 1956 का एक मुकदमा अभी भी सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं। आज तक की एक रिपोर्ट के अनुसार, 70,000 से अधिक मामले 30 वर्ष से पुराने हैं। प्रति 10 लाख जनसंख्या पर केवल 15 जज उपलब्ध हैं, जबकि वैश्विक मानक 50 जजों का है। सीपीजे लॉ जर्नल में प्रकाशित एक शोध में यह सुझाव दिया गया है कि निचली अदालतों में डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम लागू करने से समय की बचत हो सकती है।


क्यों अटक रहा है इंसाफ का पहिया?

न्यायिक सुस्ती के पीछे कई कारण हैं:


  • न्यायाधीशों की कमी: स्टेट ऑफ द ज्यूडिशियरी रिपोर्ट के अनुसार, 25,771 स्वीकृत न्यायिक पदों में से 5,293 पद खाली हैं।

  • सीमित कार्यदिवस: सुप्रीम कोर्ट 193 दिन, हाई कोर्ट 210 दिन, और निचली अदालतें 245 दिन कार्यरत रहती हैं।

  • कार्य प्रणाली: अक्सर सुनवाई का टलना, मैनुअल दस्तावेजी प्रक्रिया, और पुराने रिकॉर्ड्स का डिजिटलीकरण न होना।

  • कानूनी सहायता की कमी: जस कॉर्पस लॉ जर्नल के अनुसार, गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को मुफ्त कानूनी सहायता की अनुपलब्धता के कारण लंबी कानूनी लड़ाई का सामना करना पड़ता है।

  • बुनियादी ढांचे की कमी: कर्नाटक ज्यूडिशियल अकादमी की रिपोर्ट में उल्लेख है कि कई निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाएं, जैसे कंप्यूटर और इंटरनेट, उपलब्ध नहीं हैं।


लंबित मामलों का व्यापक प्रभाव: न्यायपालिका पर विश्वास और आर्थिक विकास पर असर

लंबित मामलों का प्रभाव केवल कानूनी नहीं है, बल्कि इसका सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर भी असर पड़ता है। NLSIU के एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया कि दीर्घकालिक कानूनी प्रक्रियाएं लोगों के न्यायपालिका पर विश्वास को कमजोर करती हैं और आर्थिक विकास को प्रभावित करती हैं, क्योंकि संपत्ति विवाद और अनुबंध से संबंधित मामले वर्षों तक अनसुलझे रहते हैं।


क्या है समाधान की राह?

  • जजों की भर्ती: ICJ की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि रिक्त पदों को शीघ्रता से भरा जाए और जजों की संख्या में वृद्धि की जाए।

  • डिजिटल क्रांति: ई-कोर्ट परियोजना की गति को बढ़ाने की आवश्यकता है। सीपीजे लॉ जर्नल में उल्लेख किया गया है कि डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम के माध्यम से 30% तक समय की बचत संभव है।

  • लोक अदालत और मध्यस्थता: लॉ जर्नल्स के एक लेख में यह सुझाव दिया गया है कि वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र को प्रोत्साहित करने से निचली अदालतों का भार कम हो सकता है।

  • अवकाश में कटौती: ड्रिस्टी आईएएस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कोर्ट के अवकाश में 10-15 दिनों की कटौती से लाखों मामलों का निपटारा तेजी से किया जा सकता है।

  • कानूनी जागरूकता: जस कॉर्पस में प्रकाशित एक लेख में यह जोर दिया गया है कि कानूनी सहायता और जागरूकता अभियानों से विचाराधीन कैदियों की संख्या में कमी आ सकती है।


न्यायिक सुधारों और डिजिटल परिवर्तन की दिशा में भारत का कदम

नए मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई के नेतृत्व में न्यायिक सुधारों की संभावनाएं प्रबल हो रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में डिजिटल सुनवाई और ई-फाइलिंग को प्रोत्साहित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। कर्नाटक ज्यूडिशियल अकादमी के अध्ययन में यह सुझाव दिया गया है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) का उपयोग केस प्रबंधन को अधिक कुशल बना सकता है। आम जनता भी इस बात पर जोर दे रही है कि यदि न्यायपालिका की प्रक्रिया में तेजी नहीं आई, तो आम नागरिक का विश्वास कमजोर हो सकता है।


क्या भारत की अदालतें इस भारी बोझ को कम कर पाएंगी, या फिर न्याय की प्रतीक्षा एक अनंत गाथा बनकर रह जाएगी? यह प्रश्न हर उस व्यक्ति के मन में है, जो वर्षों से अदालत की दहलीज पर खड़ा है।

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